न तीर कमाँ में है न सैय्याद (शिकारी) कमी (घात) में
गोशे (कोने) में क़फ़स (पिंजरे) के मुझे आराम बहुत है,
क्या ज़ोहद (सब्र) को मानूँ कि न हो गरचे रियाई (ढोंगी)
पादाश-ए-अमल (नतीजा ) कि तमअ-ए-खाम (लालच) बहुत है,
है अहल-ए-खिरद (ज़हीन) किस रविश-ए-खास (खास तर्ज) पे नाज़ाँ (फख्र)
पाबस्त्गी-ए-रस्म-ओ-रह-ए-आम (आम रीति रिवाज़ के बंधन) बहुत है,
ज़मज़म (पाक पानी) ही पे छोड़ो मुझे क्या तौफ-ए-हरम (काबे कि परिक्रमा) से
आलूद: ब मय (शराब में भीगा) जाम-ए-एहराम (हज का कपड़ा) बहुत है,
है क़हर गर अब भी न बने बात कि उनको
इन्कार नहीं और मुझे इब्राम (इल्तिजा) बहुत है,
खूँ होके जिगर आँख से टपका नहीं ए ! मर्ग (मौत)
रहने दे मुझे यहाँ कि अभी काम बहुत है,
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है,