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जुलाई 02, 2012

काफ़िर


कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से 
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से,

ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है 
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से, 

वो बद-ख़ू (बदमिजाज़), और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी (लम्बी) 
इबारत मुख़्तसर (छोटी), क़ासिद (डाकिया) भी घबरा जाये है मुझ से,

उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवानी (कमजोरी) है 
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझ से, 

सँभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी, क्या क़यामत है 
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से, 

तकल्लुफ़ बर-तरफ़ (साफगोई), नज़्ज़ारगी (देखने) में भी सही, लेकिन 
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से 

हुए हैं पाँव ही पहले नवर्द-ए-इश्क़ (इश्क की जुंग) में ज़ख़्मी 
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझ से,

क़यामत है कि होवे मुद्दई (दुश्मन) का हमसफ़र "ग़ालिब"
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से

16 टिप्‍पणियां:

  1. सँभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी, क्या क़यामत है
    कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से,

    बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ...

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामीजुलाई 02, 2012

    शुक्रिया सदा जी, आशा जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह! बेहतरीन ग़ज़ल...

    जवाब देंहटाएं
  4. कल 04/07/2012 को आपकी इस पोस्‍ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    '' जुलाई का महीना ''

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही लाजवाब गज़ल है ग़ालिब साहब की ...

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर गजल...हर इक शेर कितनी गहरी दास्तां छिपाए है...ग़ालिब की कलम...ना पूछा जाये है उससे न बोला जाये है मुझसे!

    जवाब देंहटाएं
  7. बेनामीजुलाई 03, 2012

    शुक्रिया आप सभी लोगों का ।

    जवाब देंहटाएं
  8. मिर्ज़ा ग़ालिब की ये बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है..
    इसे आशा भोंसले ने अपनी मधुर आवाज़ में भी गाया है ..लेकिन वो एक ग़ैर-फ़िल्मी ग़ज़ल है.
    बहुत दिनों बाद आज इसे यहाँ देख कर अच्छा लगा...और उसके सुर याद आ गए..
    आपका आभार..

    जवाब देंहटाएं
  9. बेहतरीन गज़ल....
    सांझा करने का शुक्रिया

    अनु

    जवाब देंहटाएं
  10. बेनामीजुलाई 03, 2012

    आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया।

    जवाब देंहटाएं

जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...