अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ (प्यार के इज़हार) के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा
जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती(जिंदगी के ज़ख्म) लिये हुए
हूँ शमआ़-ए-कुश्ता(बुझी हुई शमा) दरख़ुर-ए-महफ़िल(महफिल के काबिल) नहीं रहा
मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-खंजर-ए-कातिल (कातिल का बाज़ू खंजर चलाने के काबिल) नहीं रहा
बर-रू-ए-शश जिहत (ज़मीं और आसमां) दर-ए-आईनाबाज़ (आस-पास) है
यां इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ-क़ामिल (अधूरे और पूरे का भेद) नहीं रहा
वा (खोल) कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न (हुस्न से नकाब का खुलना)
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल (रूकावट) नहीं रहा
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार (बेरोजगार)
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल (अनजान) नहीं रहा
दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा (वफ़ा की आस) मिट गया कि वां (यूँ)
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल (पाने की हसरत) नहीं रहा
बेदाद-ए-इश्क़ (इश्क के ज़ुल्म) से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जवाब देंहटाएंजिस दिल पे नाज़ था मुझे,वो दिल नहीं रहा
एक उम्दा ग़ज़ल....
पुराने शाय़री में ही दम हुआ करता है
सलाम.... मरहूम शायर ज़नाब मिर्ज़ा ग़ालिब को
शुक्रिया यशोदा जी.....ग़ालिब साहब का तो अंदाज़ ही अलग है....हाँ नयी शायरी भी कोई बुरी नहीं :-)
हटाएंबर- रू- ए- शश जिहत दर- ए- आईनाबाज़ है
जवाब देंहटाएंयां इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ- क़ामिल नहीं रहा....
ज़नाब मिर्ज़ा ग़ालिब जी को सलाम .......
RECENT POST....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....
शुक्रिया धीरेन्द्र जी ।
हटाएंआजकल आप चुन चुन के ऐसी गजलें ला रहे हैं जिनको पढके दिल बैठा जाता है..दिल तो दिल है कोई सामान तो नहीं जो बदल जायेगा, दिल में खुदा बसता है और सदा ही बसता है.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अनीता जी..... :-))
हटाएंचुन कर ही ला रहा हूँ शायद ये तो ग़ालिब साहब की ग़ज़ल है और उनकी शायद ही कोई ऐसी ग़ज़ल हो जिसमे दर्द न हो.....हाँ ये वादा है अगली बार कुछ अलग कोशिश रहेगी :-)
wah! utad wah!
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत खूब .. आपके इस उत्कृष्ट चयन के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंगालिब साहब के हर शेर की बात ही अलग है।
जवाब देंहटाएंसादर
मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं,
जवाब देंहटाएंशायाने दस्तो खंजरे कातिल नही रहा।
गालिब... सचमुच अद्भुत....
सादर आभार।
आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया ।
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