प्रिय ब्लॉगर साथियों,
आज पेश है मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ां उर्फ “मिर्ज़ा ग़ालिब” कि शान में लिखी आज के दौर के बेहतरीन शायर 'गुलज़ार' साहब कि एक नज़्म.....उम्मीद है आप सबको पसंद आएगी|
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सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा,
लेकिन उफ़ुक़ पर थोड़ी- सी लाली।
यह क़िस्सा दिल्ली का, सन १८६७ ईसवी,
दिल्ली की तारीख़ी इमारतें
सर्दियों की धुंध - कोहरा, पुराने खण्डरात,
ख़ानदान - तैमूरिया की निशानी लाल क़िला
हुमायूँ का मकबरा - जामा मस्जिद,
एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान
एक मेहराब का टूटा-सा कोना -
दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे
डेवढ़ी पर बँधी एक बकरी के मिमियाने की आवाज़,
धुंधलके से झाँकते एक मस्जिद के नकूश
पान वाले की बंद दुकान के पास
दीवारों पर पान की पीक के छींटे
यही वह गली थी जहाँ ग़ालिब की रिहाइश थी,
उन्हीं तस्वीरों पर एक आवाज़ उभरती है
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा,
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटड़े की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले,
इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआने सुख़न का सफ़्हा खुलता है
असद उल्लाह ख़ाँ `ग़ालिब' का पता मिलता है,
- गुलज़ार