हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'?
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू (तरीका) क्या है,
न शो'ले (आग) में ये करिश्मा न बर्क़ (बिजली) में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू (शरारत, अकड़) क्या है,
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न (बातचीत) तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू (दुश्मन के सिखाने का डर) क्या है,
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन (लिबास)
हमारी जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू (रफू की ज़रूरत) क्या है,
जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू (तलाश) क्या है,
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है,
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त (जन्नत) अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू (गुलाबी महकती शराब) क्या है,
पियूँ शराब अगर ख़ुम (शराब के ढोल) भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू (बोतल, प्याला, सुराही) क्या है,
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार (बोलने की ताक़त) और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू (ख्वाहिश) क्या है,
हुआ है शाह (शहंशाह) का मुसाहिब (दरबारी), फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू (इज्ज़त) क्या है,
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'?
जवाब देंहटाएंतुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू (तरीका) क्या है,
बेहतरीन प्रस्तुति ।
शुक्रिया सदा जी|
हटाएंsangrahaneeya post ...sunder prayas ....
जवाब देंहटाएंnayab prastuti...
abhar.
शुक्रिया अनुपमा जी|
हटाएंImran bhai vakai apka yah sanyojan bahut achha laga.....galib sahab ki gazalon se bahut kuchh seekhane ko milata hai .....abhar Imaran bhai.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया नवीन जी|
हटाएंहरेक बात पे कहते हो कि तू क्या है... बहुत बार सुनी थी यह गजल आज पूरी पढ़ी...ग़ालिब लफ्जों के बादशाह हैं, शुक्रिया इस उम्दा पोस्ट के लिये.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अनीता जी......हाँ सही है ग़ालिब जैसा कोई नहीं|
हटाएंकालजयी ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंनीरज
शुक्रिया नीरज जी|
हटाएंमिर्जा ग़ालिब साहिब की यह गजल जगजीतसिंह जी की आवाज में सुनी थी , उसमे ये शेर (२) न शोले में ये करिश्मा (३) ये रश्क है कि (७) वो चीज जिसके लिए और (८) पियूं शराब नहीं थे / पूरी गजल के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आने का शुक्रिया बृजमोहन जी......ऐसा अक्सर होता है गाने के हिसाब से ग़ज़ल में काँट-छाँट कर ली जाती है | पर यहाँ आपको इंशाल्लाह पूरी ग़ज़ल मिलेगी बमय अर्थों के साथ|
हटाएंअच्छी प्रस्तुति,बहुत सुंदर रचना,बेहतरीन पोस्ट....लाजबाब
जवाब देंहटाएंnew post...वाह रे मंहगाई...
शुक्रिया धीरेन्द्र जी|
हटाएंबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
शुक्रिया शांति जी|
जवाब देंहटाएंजला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा,
जवाब देंहटाएंकुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है?
मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शे’र अपने अंदर बहुत सी बातें छुपाए हुए है, सबसे बड़ी बात तो यह कि ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ सिर्फ़ मिर्ज़ा ग़ालिब ही हो सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। इसके अलाबा भी बहुत सारी बातें। किसी अपने प्रिय का अंतिम संस्कार हो भी गया, लेकिन पीछे से उसका कोई अपना शमशान घाट पर जा कर राख देख रहा है। लेकिन शायर कहता है कि जिस्म जल गया है तो दिल भी कहां बचा होगा, क्या तलाश रहे हो? सोचा जाए तो जलने वाली चीज़ों में जिस्म से ज़्यादा तो दिल का संसार होता है। कितनी ही इच्छाएं, कितनी ही अधूरी रह गई ख़्वाहिशें, कितने ही सपने, कितने ही ग़म, कितनी ही कुंठाएं, कितने ही लोगों के प्रति प्रेम। कुल मिला कर एक बहुत बड़ा सूक्ष्म जगत जल कर राख हो जाता है। लेकिन शरीर के खत्म हो जाने की बात सभी करते हैं, और उस बड़े संसार की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता।