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अक्टूबर 10, 2012

लगाव



जौर (ज़ुल्म) से बाज़ आयें पर बाज़ आएँ क्या 
कहते हैं हम तुमको मुँह दिखलायें क्या,

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या, 

लाग (दुश्मनी) हो तो उसको हम समझे लगाव 
जब न हो कुछ तो धोखा खाएँ क्या,

हो लिए क्यूँ नामाबर (डाकिये) के साथ साथ 
या रब ! अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या,

मौज-ए-खूँ (खून कि लहर) सर से गुज़र ही क्यूँ न जाए
आस्तान-ए-यार (माशूक कि चौखट) से उठ जाएँ क्या, 

उम्र भर देखा किए मरने कि राह
मर गए पर देखिये दिखलाएँ क्या,

पूछते हैं वो कि "ग़ालिब" कौन है ?
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या,  



7 टिप्‍पणियां:

  1. "मिर्ज़ा ग़ालिब"जी की गजल साझा करने के लिये आभार,,,,इमरान जी,,,

    RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,

    जवाब देंहटाएं
  2. जब भी ग़ालिब को पढ़ने को मन करता है, मैं यहां चला आता हूं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया मनोज जी....आपका हमेशा स्वागत है ।

      हटाएं

जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...