Click here for Myspace Layouts

जनवरी 17, 2014

तक़रार



दोनों जहान ले के वो समझे यह खुश रहा 
यों आ पड़ी शर्म, कि तक़रार क्या करें,

थक-थक के हर मुक़ाम पर दो चार रह गए 
तेरा पता न पाएँ तो नाचार (जाँच) क्या करें,

क्या शमां के नहीं हैं हवाख्वाह अहल-ए-बज़्म (महफ़िल के साथी)
हो गम ही जाँगुदाज़ (जानलेवा) तो ग़मख्वार (हमदर्द) क्या करें,

- मिर्ज़ा ग़ालिब   

  

नवंबर 13, 2013

खुदा की कुदरत



ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं 
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं,

वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है 
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं,

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को 
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख्म-ए-जिगर को देखते हैं,

तेरे जवाहिर-ए-तर्फ़-ए-कुल (ताज में जड़े हीरे) को क्या देखें !
हम औज-ए-ताले-ए-लाल-ओ-गुहर (हीरे की किस्मत) को देखते हैं,      

सितंबर 28, 2013

वक़्त



मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त  
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ,

ज़ोफ़ (कमज़ोरी) में ताना-ए-अगयार (दुश्मन के ताने) का शिकवा क्या है 
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ,

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना 
क्या कसम है तेरे मिलने की, कि खा भी न सकूँ,   



अगस्त 14, 2013

मजनूँ



सरगश्तगी (परेशानी) में आलम-ए-हस्ती से यास (उदासी) है 
तस्कीन (उम्मीद) को दे नवेद (खुशखबरी) की मरने की आस है,

लेता नहीं मेरे दिल-ए-आवारा की खबर 
अब तक वो जानता है कि मेरे पास है,

कीजे बयाँ सुरूर-ए-तप-ए-ग़म (गम की आग की ख़ुशी) कहाँ तलक ?
हर मू (वक़्त) मिरे बदन प ज़बान-ए-सिपास (अहसान मंद जुबान) है,

है वो गुरुर-ए-हुस्न से बेगाना-ए-वफ़ा (अनजान)
हरचंद उसके पास दिल-ए-हक़्शनास (इल्म से भरा) है,

पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब (चाँदनी रात) में शराब 
इस बलगमी मिजाज़ (ठंडी शख्सियत) को गर्मी ही रास है,

हर एक मकान को है मकीं (निवासी) से शरफ़ (शोहरत) 'असद'
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है,

जुलाई 18, 2013

महफ़िल

बाग़ पाकर ख़फ़कानी (पागल) यह डराता है मुझे 
साय-ए-शाख़-ए-ग़ुल (डाली की छाया) अफई (साँप) नज़र आता है मुझे,  

जौहर-ए-तेग (तलवार की तेज़ी) बसर चश्मा-ए-दीगर मालूम (आँखों देखी)
हूँ मैं वो सब्ज़ा (पेड़) की ज़हराब (जहर भरा पानी) उगाता है मुझे,

मुद्दआ महब-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल (दिल टूटने का तमाशा) है
आईनाखाने में कोई लिए जाता है मुझे,

नाला सरमाय-ए-यक आलम (आर्तनाद ही सच)आलम क़फ़-ए-ख़ाक (मुट्ठी भर ख़ाक)
आसमाँ बैज-ए-क़ुमरी (कुमरी पक्षी का अंडा) नज़र आता है मुझे 

जिंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे 
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे?