बाग़ पाकर ख़फ़कानी (पागल) यह डराता है मुझे
साय-ए-शाख़-ए-ग़ुल (डाली की छाया) अफई (साँप) नज़र आता है मुझे,
जौहर-ए-तेग (तलवार की तेज़ी) बसर चश्मा-ए-दीगर मालूम (आँखों देखी)
हूँ मैं वो सब्ज़ा (पेड़) की ज़हराब (जहर भरा पानी) उगाता है मुझे,
मुद्दआ महब-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल (दिल टूटने का तमाशा) है
आईनाखाने में कोई लिए जाता है मुझे,
नाला सरमाय-ए-यक आलम (आर्तनाद ही सच)आलम क़फ़-ए-ख़ाक (मुट्ठी भर ख़ाक)
आसमाँ बैज-ए-क़ुमरी (कुमरी पक्षी का अंडा) नज़र आता है मुझे
जिंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे?
बहुत उम्दा गजल साझा करने के लिए,आभार
जवाब देंहटाएंRECENT POST : अभी भी आशा है,
बहुत सुन्दर इमरान भाई. ग़ालिब का जवाब नहीं.
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रयास ....आभार ग़ालिब पढ़वाने का ......
जवाब देंहटाएंमर कर सब समान हो जाते हैं...ग़ालिब का फलसफा हर दिल अजीज है...
जवाब देंहटाएंइतनी मुश्किल उर्दू को आपने हमारे लिये सरल कर दिया । अनेक धन्यवाद गालिब साहब की ये गज़ल पढवाने का ।
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा हमारे ब्लॉग 'मिर्ज़ा ग़ालिब' पर आने का और इतनी उत्साहवर्धक टिप्पणीयाँ देने के लिए दिल से शुक्रिया।
हटाएंgaalib ki ek aur umdaa gazal ... achaa kiyaa aapne matlab samjhaaya in shabdon ka bhi ...
जवाब देंहटाएंआप सभी लोगों का बहुत बहुत शुक्रिया।
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