ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं,
वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं,
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख्म-ए-जिगर को देखते हैं,
तेरे जवाहिर-ए-तर्फ़-ए-कुल (ताज में जड़े हीरे) को क्या देखें !
हम औज-ए-ताले-ए-लाल-ओ-गुहर (हीरे की किस्मत) को देखते हैं,
उम्दा कार्य
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गजल को इक जगह जमा करना
खुद नेमत दे आपको भाई
http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/के शुक्रवारीय अंक ४४ १५/११/२०१३ में आपकी पोस्ट को शामिल किया गया कृपया अवलोकन हेतु पधारे धन्यवाद
जवाब देंहटाएंग़ालिब की बहुत प्रसिद्ध गजल..पढवाने के लिए शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंएक उम्दा गज़ल को पढवाने का शुक्रिया ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति...आप को और सभी ब्लॉगर-मित्रों को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-तुमसे कोई गिला नहीं है