सरगश्तगी (परेशानी) में आलम-ए-हस्ती से यास (उदासी) है
तस्कीन (उम्मीद) को दे नवेद (खुशखबरी) की मरने की आस है,
लेता नहीं मेरे दिल-ए-आवारा की खबर
अब तक वो जानता है कि मेरे पास है,
कीजे बयाँ सुरूर-ए-तप-ए-ग़म (गम की आग की ख़ुशी) कहाँ तलक ?
हर मू (वक़्त) मिरे बदन प ज़बान-ए-सिपास (अहसान मंद जुबान) है,
है वो गुरुर-ए-हुस्न से बेगाना-ए-वफ़ा (अनजान)
हरचंद उसके पास दिल-ए-हक़्शनास (इल्म से भरा) है,
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब (चाँदनी रात) में शराब
इस बलगमी मिजाज़ (ठंडी शख्सियत) को गर्मी ही रास है,
हर एक मकान को है मकीं (निवासी) से शरफ़ (शोहरत) 'असद'
मजनूँ जो मर गया है तो जंगल उदास है,
बेहतरीन कोशिश ....आभार मिर्ज़ा ग़ालिब पढ़वाने का ....!!
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा गजल ,,,
जवाब देंहटाएंस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
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