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जनवरी 17, 2014

तक़रार



दोनों जहान ले के वो समझे यह खुश रहा 
यों आ पड़ी शर्म, कि तक़रार क्या करें,

थक-थक के हर मुक़ाम पर दो चार रह गए 
तेरा पता न पाएँ तो नाचार (जाँच) क्या करें,

क्या शमां के नहीं हैं हवाख्वाह अहल-ए-बज़्म (महफ़िल के साथी)
हो गम ही जाँगुदाज़ (जानलेवा) तो ग़मख्वार (हमदर्द) क्या करें,

- मिर्ज़ा ग़ालिब   

  

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत गहन भाव..सही है..जब गम ही जानलेवा हो तो तो कोई कितना भी हमदर्द हो, कर भी क्या सकता है..

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...