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फ़रवरी 18, 2013

क़यामत



नहीं कि मुझको क़यामत का एतिकाद (यकीन) नहीं
शब-ए-फिराक (विरह कि रात) से रोज़-ए-जज़ा (क़यामत) ज्यादा  नहीं,

कोई कहे कि शब-ए-मह (चाँदनी रात) में क्या बुराई है
बला से आज अगर दिन को अब्र-ओ-बाद (सुहानी घटा) नहीं,

जो आऊँ सामने उनके तो मरहबा (स्वागत) न कहें 
जो जाऊँ वहाँ से कहीं को तो खैरबाद (विदाई) नहीं,

कभी जो याद भी आता हूँ मैं, तो कहते हैं कि 
आज बज़्म में कुछ फ़ित्न-ओ-फिसाद (लड़ाई-झगड़ा) नहीं,    
     
आलावा ईद के मिलती है और दिन भी शराब 
गदा-ए-कूचा-ए-मयखाना नामुराद (मयखाने का भिखारी) नहीं,

जहाँ में हैं गम-ओ-शाद बहम (साथ) हमे क्या काम 
दिया है हमको खुदा ने वो दिल कि शाद (खुश) नहीं,

तुम उनके वादे का ज़िक्र उनसे क्यूँ करों 'ग़ालिब'
ये क्या कि तुम कहो, और वो कहें कि याद नहीं,  
  

8 टिप्‍पणियां:

  1. बेमिसाल.... इस शायरी का कोई जवाब नहीं!

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  2. बेमिसाल.... कोई जवाब नहीं ग़ालिब का .....

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह ! ग़ालिब मियाँ की मासूमियत के क्या कहने..

    जवाब देंहटाएं
  4. तुम उनके वादे का ज़िक्र उनसे क्यूँ करों 'ग़ालिब'
    ये क्या कि तुम कहो, और वो कहें कि याद नहीं,
    वाह ... बहुत खूब
    आभार इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बढ़िया ...आभार इसे पढ़वाने का ...

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  6. बहुत सुंदर ग़ालिब साहब की गजल साझा करने के लिए ,,,आभार इमरान जी

    Recent Post दिन हौले-हौले ढलता है,

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  7. शुक्रिया आप सभी का यहाँ तक आने और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी देने का।

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  8. बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

    जवाब देंहटाएं

जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...