है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और
या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और
आबरू से है क्या उस निगाह -ए-नाज़ को पैबंद
है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ (कमान)और
तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जाँ (जान) और
हरचंद सुबुकदस्त (डूबे हुए) हुए बुतशिकनी (पत्थर की पूजा) में
हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ ( पत्थर की चट्टान) और
है ख़ून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते कई जो दीदा-ए-ख़ूँनाबफ़िशाँ (खून बहाने वाली आँखें) और
मरता हूँ इस आवाज़ पे हरचंद सर उड़ जाये
जल्लाद को लेकिन वो कहे जाये कि हाँ और
लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब (जन्नत) का धोखा
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ (छुपा हुआ दाग) और
देता न अगर दिल तुम्हें लेता कोई दम चैन
करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ और
पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले
रुकती है मेरी तब'अ (साँस) तो होती है रवाँ और
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
इमरान साहब,
जवाब देंहटाएंयह ग़ालिब की बहुत ही चर्चित ग़ज़ल है जिसका मक्ता सभी की ज़ुबान पर रहता है ,मगर पूरी ग़ज़ल आज पढ़कर
बहुत ही अच्छा लगा !
आपका शुक्रिया !
आपका बहुत-बहुत आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये ।
जवाब देंहटाएंइस अनूठे प्रयास के लिए ह्रदय से आभार ...!!
जवाब देंहटाएंहम तो ग़ालिब साहब की गजलों के दीवाने हैं।
जवाब देंहटाएंमैने अभी अभी चिट्ठी (मैसेज) लिखा है आपने बडे भाई साहिब को इस गजल का अर्थ व व्याख्या बताने को क्यों कि वो मुझसे बहुत बडे हैं और उर्दू जुबा के जानकार भी हैं, उनका जवाब मिलने पर लिखूंगा, तब तक के लिये खुदा हाफ़िज, शैलेन्द्र शर्मा बइल व्यू (अमरीका)
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