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दिसंबर 13, 2012

बदनाम



न तीर कमाँ में है न सैय्याद (शिकारी) कमी (घात) में 
गोशे (कोने) में क़फ़स (पिंजरे) के मुझे आराम बहुत है,

क्या ज़ोहद (सब्र) को मानूँ कि न हो गरचे रियाई (ढोंगी)
पादाश-ए-अमल (नतीजा ) कि तमअ-ए-खाम (लालच) बहुत है,

है अहल-ए-खिरद (ज़हीन) किस रविश-ए-खास (खास तर्ज) पे नाज़ाँ (फख्र) 
पाबस्त्गी-ए-रस्म-ओ-रह-ए-आम (आम रीति रिवाज़ के बंधन) बहुत है,

ज़मज़म (पाक पानी) ही पे छोड़ो मुझे क्या तौफ-ए-हरम (काबे कि परिक्रमा) से
आलूद: ब मय (शराब में भीगा) जाम-ए-एहराम (हज का कपड़ा) बहुत है,

है क़हर गर अब भी न बने बात कि उनको 
इन्कार नहीं और मुझे इब्राम (इल्तिजा) बहुत है,

खूँ होके जिगर आँख से टपका नहीं ए ! मर्ग (मौत)
रहने दे मुझे यहाँ कि अभी काम बहुत है, 

होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने 
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है, 
            

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढिया,"मिर्ज़ा ग़ालिब" जी का जबाब नही,,, बधाई।

    recent post हमको रखवालो ने लूटा

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  2. एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया।

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  3. बहुत खूब ! ग़ालिब को भला कौन नहीं जानता...क्या अनोखा अंदाज है उनका..शुक्रिया इस पोस्ट के लिए..

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...