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मार्च 31, 2012

राहबर


हैरां हूँ, दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं 
मक़दूर (अमीर) हूँ तो साथ रखूँ नौहागर (मौत पर रोने वाले) को मैं, 

छोड़ा न रश्क (जलन) ने कि तेरे घर का नाम लूँ 
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं ?

जाना पड़ा रक़ीब (दुश्मन) के दर पर हज़ार बार 
ऐ काश, जानता न तेरी रहगुज़र को मैं, 

है क्या जो कस के बाँधिये मेरी बला डरे 
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं, 

लो, वो भी कहते हैं कि ये बेनंग-ओ-नाम (बर्बाद) है 
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं, 

चलता हूँ थोड़ी दूर हर-इक तेज़-रौ (बहती लहर) के साथ 
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर (गुरु) को मैं, 

ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश (पूजा) दिया क़रार 
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदादगर (पत्थर दिल) को मैं? 

फिर बेख़ुदी में भूल गया, राह-ए-कू-ए-यार (यार की गली) 
जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं, 

अपने पे कर रहा हूँ क़यास (अंदाज़ा) अहल-ए-दहर (दुनिया वालों) का 
समझा हूँ दिल-पज़ीर (दिल की पसंद) मताअ़-ए-हुनर (दौलत का हुनर) को मैं 
,
"ग़ालिब" ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-ए-नाज़ (गर्व के घोड़े पर सवार) 
देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर (अली बहादुर - एक पीर) को मैं,

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ...बहुत ही बढि़या प्रस्‍तुति।

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  2. बहुत बढ़िया ....
    बहुत मेहनत से सजाई ग़ालिब की शायरी ...
    बधाई एवं शुभकामनायें ...!!

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  3. इमरान भाई, बहुत अच्छा लगता है ग़ालिब को पढ़के... और साथ ही कुछ कठिन उर्दू अल्फाजों के मीनिंग्स जो आप लिख देते हैं, उससे कितनी सहूलियत हो जाती है!
    बहुत शुक्रिया पोस्ट के लिए!

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  4. जाना पड़ा रकीब के दर पे हजार बार
    ऐ काश जानता न तेरी रहगुज़र को मैं....

    गालिब की गजलें... उनके एक एक शेर... क्या कहें…
    मुझे गालिब को पढ़ने मे बड़ा आनंद आता है...
    इस खूबसूरत कलाम को शेयर करने के लिए सादर आभार।

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  5. बेनामीअप्रैल 01, 2012

    आप सभी लोगों का बहुत बहुत शुक्रिया ।

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  6. छोड़ा न रश्क ने कि तेरे घर का नाम लूँ
    हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं
    वाह ! बहुत सुंदर ....ग़ालिब जैसे हर इंसान के दिल का हाल लिखते चले जाते हैं....इस खूबसूरत गजल के लिये शुक्रिया !

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  7. ग़ालिब को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है ..........

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जो दे उसका भी भला....जो न दे उसका भी भला...