दोनों जहान ले के वो समझे यह खुश रहा
यों आ पड़ी शर्म, कि तक़रार क्या करें,
थक-थक के हर मुक़ाम पर दो चार रह गए
तेरा पता न पाएँ तो नाचार (जाँच) क्या करें,
क्या शमां के नहीं हैं हवाख्वाह अहल-ए-बज़्म (महफ़िल के साथी)
हो गम ही जाँगुदाज़ (जानलेवा) तो ग़मख्वार (हमदर्द) क्या करें,
- मिर्ज़ा ग़ालिब