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दिसंबर 19, 2011

ग़ालिब का पता मिलता है,

 प्रिय ब्लॉगर साथियों,

आज पेश है मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ां उर्फ “मिर्ज़ा ग़ालिब” कि शान में लिखी आज के दौर के बेहतरीन शायर 'गुलज़ार' साहब कि एक नज़्म.....उम्मीद है आप सबको पसंद आएगी|
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सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा, 
लेकिन उफ़ुक़ पर थोड़ी- सी लाली। 
यह क़िस्सा दिल्ली का, सन १८६७ ईसवी, 
दिल्ली की तारीख़ी इमारतें

सर्दियों की धुंध - कोहरा, पुराने खण्डरात,
ख़ानदान - तैमूरिया की निशानी लाल क़िला 
हुमायूँ का मकबरा - जामा मस्जिद,

एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान 
एक मेहराब का टूटा-सा कोना -
दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे
डेवढ़ी पर बँधी एक बकरी के मिमियाने की आवाज़, 

धुंधलके से झाँकते एक मस्जिद के नकूश 
पान वाले की बंद दुकान के पास 
दीवारों पर पान की पीक के छींटे
यही वह गली थी जहाँ ग़ालिब की रिहाइश थी, 

उन्हीं तस्वीरों पर एक आवाज़ उभरती है
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा,

और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटड़े की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले,

इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआने सुख़न का सफ़्हा खुलता है 
असद उल्लाह ख़ाँ `ग़ालिब' का पता मिलता है,
  
                               - गुलज़ार 

दिसंबर 07, 2011

अंदाज़-ए-बयाँ


है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और 
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और, 

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात 
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और, 

आबरू से है क्या उस निगाह -ए-नाज़ को पैबंद 
है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ और, 

तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे 
ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जाँ और, 

हरचंद सुबुकदस्त (हाथ लगे रहे ) हुए बुतशिकनी (पत्थर की पूजा) में 
हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ (चट्टान का पत्थर) और, 

है ख़ून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता 
होते कई जो दीदा-ए-ख़ूँनाबफ़िशाँ (खून रोने वाली आँखे) और, 

मरता हूँ इस आवाज़ पे हरचंद सर उड़ जाये 
जल्लाद को लेकिन वो कहे जाये कि हाँ और, 

लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब (चमकता सूरज) का धोका 
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ (छुपा हुआ दाग) और, 

लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन 
करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ (कराह) और, 

पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले (रोना)
रुकती है मेरी तब'अ (तबियत) तो होती है रवाँ और, 

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर (शायर) बहुत अच्छे 
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और,